‘‘गूंज हैं-सब एक हो’’ My Poetry My Words Just another Jagranjunction Blogs weblog
1-
मायने बदले-बदले,
उतरी सी हुयी हैं शक्ले,
इतने महंगे तेरे तेवर क्यों हैं?
रिश्तो में हैं क्यो मिलावट,
सर पे गुस्सा देता आहट,
छत होकर भी सब बेघर क्यो हैं?
इधर भी देखो जिधर भी देखो
सब लड़े-भिड़े से जुदा,
अब तो मानो तुम ये जानो
क्या सोचेगा वरना खुदा?
गूंज हैं रुठे दिलो को पास लाने की,
गूंज हैं रोते चेहरो को खिलखिलाने की,
गूंज हैं बिन बोले ये बताने की,
सब एक हो
एक से हो ।।
2-
बड़ता कुन्दन का भाव,
सूरज चुराता छांव,
कही बारिश कहीं सूखा क्यो है?
धर्म-जाति के हैं किस्से,
जेब भरते खोटे सिक्के,
अपने भी तो झूठे सपने क्यो हैं?
इधर भी देखो जिधर भी देखो
सच ज़बानो से रहता खफा,
अब तो मानो तुम ये जानो
क्या सोचेगा वरना खुदा?
गूंज हैं कुछ ऐसी गलतिया गिनाने की,
गूंज हैं दीवारे सारी ऐसी तोड़ जाने की,
गूंज हैं बिन बोले ये बताने की,
सब एक हो
एक से हो ।।
3-
दिमाग में भरे हैं कचरे,
लड़कियो को क्यो हैं खतरे,
इतनी छोटी सी ये सोचे क्यो हैं?
राजनीति की कहानी,
लूटने की जो हैं ठानी,
जिन्दगी में इतने धोखे क्यो हैं?
इधर भी देखो जिधर भी देखो
सब शिकारी से बैठे यहा
अब तो मानो तुम ये जानो
क्या सोचेगा वरना खुदा?
गूंज हैं सोने की चिडि़या फिर बनाने की,
गूंज हैं आजाद़ ख्वाहिशें गुनगुनाने की,
गूंज हैं बिन बोले ये बताने की,
सब एक हो
एक से हो ।।
-सुधांशु शर्मा
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